अब शब्द नहीं आते अपने आप,
कभी लिखा नहीं मैंने यूँ ही बिन बात, अब शब्द नहीं आते अपने आप।
याद हैं वो क्षण जब लिखा था आखिरी बार, न जाने क्या हो गया मुझे उस क्षण के बाद।
जिंदगी इतनी तेज आगे बढ़ी, कि समझ नहीं पाया क्या हो रहा है जीवन में, मेरे आस पास ।
कभी लिखा नहीं मैंने यूँ ही बिन बात, अब शब्द नहीं आते अपने आप।
याद हैं वो क्षण जब लिखा था आखिरी बार, न जाने क्या हो गया मुझे उस क्षण के बाद।
जिंदगी इतनी तेज आगे बढ़ी, कि समझ नहीं पाया क्या हो रहा है जीवन में, मेरे आस पास ।
हर कोई आगे बढ़ा जा रहा था, मैं स्वयं भी किसी के साथ, किसी के आगे और किसी के पीछे भाग ही रहा था ।
उस दौड़ में मैंने अपनी जगह तो बना ली थी किसी तरह, लेकिन उस दौड़ का हिस्सेदार मैं आज तक बन नहीं पाया ।
खुद के साथ अब एक पल भी अकेला बिताने में डर सा लगता है, लगता है, कही मैं अपना मूल्यांकन न करने लगूं ।
क्यूंकि स्वाध्याय तो अब मैं कर नहीं पता सिर्फ मूल्यांकन ही करता हूँ।
जिस तरह किसी वस्तु का, उसके प्रयोग में आने की क्षमता के आधार पर बाज़ार में मूल्यांकन किया जाता है , अब मैं वही स्वयं के साथ करने लगा हूं।
पहले समाज ने सामने मापदंड रखे थे, आज मैंने स्वयं ही बहुत सारे मापदंड रख लिए हैं अपने लिए। और सहमा सा रहता हूँ हर वक्त उनके सामने।
क्यूंकि सांख्यिकी के इस संसार में उन मापदंडो पर कई ऐसे लोग हैं और होंगे जो मुझसे कहीं आगे होंगे।
नहीं समझ पा रहा हूँ की शब्द क्यों नहीं आते। इसलिए क्यूंकि कुछ कहने को नहीं अथवा इसलिए क्यूंकि इतना कुछ है कहने को कि कुछ कहने का ज्यादा मतलब ही नहीं।
या लोग क्या निष्कर्ष निकालेंगे उस बात का डर घर कर गया है, पता नहीं, लेकिन फिर भी आज मन किया की चलो लिखते हैं कुछ। हमेशा की तरह इस बार भी बैठ गए लिखने।
लेकिन हमेशा की तरह वह शब्द प्रवाह जिसे थामे रखने के लिए जल्दी जल्दी लिखना पड़ता था, ऐसा नहीं हो रहा आज।
तो लगा चलो आज इस व्यथा को ही अपनी कथा बना लेते हैं । लिख देते हैं इस बारे में की क्यूँ नहीं लिख पा रहे हम फिर से आज।
Great lines
ReplyDeleteThanks :)
DeleteNice lines
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