आत्म - निरीक्षण


मैं ही स्वयं  का रक्षक हूँ , 
मैं ही स्वयं का भक्षक भी।

मैं  ही कारक हूँ और मैं ही कर्त्ता भी,
मैं ही  निर्माता हूँ और मैं ही विध्वंसक भी।
 मैंने ही हिमालय की ऊचाइयों को नापा है,
और मैंने ही स्वयं को गर्त में धकेला है।

 मैंने ही स्वयं में महासागरों की गहराई लायी है ,
और मैंने ही उत्छृंखलता  भी  दर्शाई है। 

मैंने ही खुद जीवन को है किया प्रकाशित ,
और मैंने ही अन्धकार को पनाह दिलाई है। 

हर बार  परिश्रम से मैंने अवसर पाए है,
और न जाने क्यूँ अधीर हो , ये अवसर भी गवाएं है। 

संसार  की समझ तो अब मुझमें आयी है ,
पर स्वयं की गुत्थी मैंने अब भी उलझी पायी है। 

मैंने स्वतन्त्रता का लाभ उठाया है ,
पर स्वच्छन्दता पर भी कदम बढ़ाया है। 

मैंने तो सुविचारों की नाव बनाई थी ,
पर इन कुविचारों की खायी खुदी खुदाई थी। 

कैसा है ये द्वंद्व निराला ?
जिसने मुझे स्वयं हेतु ही पहेली बना डाला। 

क्यूँ होते है हर सिक्के के दो पहलू ,
एक सही तो दूसरा गलत। 

चुनाव के वक्त , मति क्यूँ पड़ जाती है मंद ,
ज्ञान होने पर भी , क्यूँ आकर्षित करता है गलत दिशा का स्तम्भ। 

दिग्भ्रमितों की हमने ये परिपाटी क्यूँ बनायी है ,
सही गलत की शिक्षा तो किताबों में दबाई है। 

तथाकथित "प्रगति" , तो कर रहे यहाँ भी हम ,
परन्तु आज भी है उचित दिशा में भ्रम। 

ध्वनिवेग विमानों से छू  रहे ऊँचाइयाँ हम ,
आकाश चीर , नभ भेदित कर , आ गए अन्तरिक्ष में हम। 

क्या यह है मृगतृष्णा ?
या यही लक्ष्य था अपना ?
किंतु , आश्चर्य यह भी एक अनोखा है ,
सबसे ऊपर जाकर देखो तो ऊंचाई तो मात्र एक धॊखा  है।

जिसे समझा था आज तक ऊचाई और ऊपर पहुँचने का जरिया 
वह तो मात्र छलावा निकला , सिर्फ देखने का एक नज़रिया। 

शून्य में  विलीन यह ब्रम्हांड सारा है ,
हमें तो सिर्फ कर्मों का सहारा है। 

आत्म नियंत्रण में ही निहित परिष्करण है,
उत्छृंखलता तो मात्र नासमझ आचरण है। 

अब तो सुननी होगी मुझे , आत्मा की पुकार ,
इन्द्रियाँ वश में कर, नहीं होने देनी है स्वयं से स्वयं की हार। 

अनेकों बार खाई है , मैंने स्वयं से मात ,
झेला है कई बार स्वयं का आघात। 

परन्तु अब, बहुत हो चुका  द्वंद्व ,
परिस्थितियां नहीं चुनेंगी मेरी जीवन दिशा का स्तम्भ। 

मानव होने की अब बस मेरी एक लढाई होगी  ,
मेरे जीवन की दिशा मेरे विचारों और आशाओं की अनुयायी होगी। 

मेरी दशा पर होगा अब मेरा सम्पूर्ण नियंत्रण ,
चुनौतियों के लिए है यह मेरा एक खुला आमंत्रण। 

जिस मानवता पर अब तक भरता रहा मैं दंभ ,
आज टटोलना है मुझको उसमें अपना प्रतिबिम्ब।

मुझको अपनी  राह अब स्वयं बनानी है ,
इस मानव जीवन को उचित दिशा दिलानी है।
साहस से मानवता की अब जुड़ी कमानी है ,
मुझको इस जीवन में मानवता लानी है।।  

Comments

  1. It's gud................. as a matter of the philosophy I feel that U shud study more by coming out your comfort zone. It means " compare ur thoughts with the giants of thinking world and try to develop more inclusive outlook. But as a poetry and philosophy it's appreciable

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